SJS&PBS

स्थापना : 18 अगस्त, 2014


: मकसद :

हमारा मकसद साफ! सभी के साथ इंसाफ!!


: अवधारणा :


सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक जिम्मेदारी!

Social Justice, Secularism And Pay Back to Society-SJS&PBS


: सवाल और जवाब :


1-बहुसंख्यक देशवासियों की प्रगति में मूल सामाजिक व्यवधान : मनुवादी आतंकवाद!

2-बहुसंख्यक देशवासियों की प्रगति का संवैधानिक समाधान : समान प्रतिनिधित्व।


अर्थात्

समान प्रतिनिधित्व की युक्ति! मनुवादी आतंकवाद से मुक्ति!!


16.9.14

हक रक्षक दल एक परिचय

हक रक्षक दल के प्रमुख होने के नाते मैं हक रक्षक दल की ओर से कुछ बहुत ही सामान्य सी बातें प्रस्तुत कर रहा हूँ। आप सब जानते हैं कि सामान्य हालातों में :-

1. परिवार के सदस्यों के अधिकार और कर्त्तव्य : हम सभी जानते हैं कि-
  • (1) एक परिवार की सभी सम्पत्तियों पर परिवार के सभी सदस्यों का जन्मजात अधिकार होता है।
  • (2) परिवार के सभी सदस्यों की अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियॉं भी एक समान होती हैं।
  • (3) परिवार के सदस्यों में अधिकारों और कर्त्तव्यों के विभाजन में विभेद से परिवार टूटते हैं। 
2. राष्ट्र के नागरिकों के अधिकार और कर्त्तव्य : इसी प्रकार से हम सभी जानते हैं कि-
  • (1) एक राष्ट्र की सभी सम्पत्तियों पर देश के सभी नागरिकों का जन्मजात अधिकार होता है।
  • (2) राष्ट्र के सभी नागरिकों की अपने राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारियॉं भी एक समान होती हैं।
  • (3) राष्ट्र के नागरिकों में अधिकारों और कर्त्तव्यों के विभाजन में विभेद से राष्ट्र टूटते हैं।
3. चाहे परिवार हो या राष्ट्र, परिवार के लोगों और नागरिकों के प्रति समानता का व्यवहार आपसी प्रेम, सौहार्द और सहयोग की भावना को जन्म देता है। जबकि अधिकारों और कर्त्तव्यों में विभेद किये जाने से परिवार हो चाहे राष्ट्र ने उसमें कलह, असन्तोष, असहयोग और बिखराव का वातावरण निर्मित होता है। जो किसी भी परिवार या राष्ट्र की सामूहिक ताकत को कमजोर करता है।

उपरोक्त सरल और आसान सी बात को भारत देश के नीति नियन्ता नहीं समझते होंगे, इस बात को सहज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थात् देश के नीति-नियन्ता सब कुछ जानते हैं, फिर भी सरकार द्वारा देश के नागरिकों के साथ खुलकर ऐसा भेदभाव क्यों किया जा रहा है, जिससे देश में हर ओर लगातार-कलह, असन्तोष, असहयोग और बिखराव का वातावरण निर्मित हो रहा है? देश में- कोई भी वर्ग सन्तुष्ट नहीं है?
  1. आरक्षित कहते हैं कि मनुवादियों ने उनका हजारों सालों से शोषण किया है, जो आज तक जारी है!
  2. इसके विपरीत मनुवादी कहते हैं कि आरक्षण देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है!
  3. वहीं आरक्षित वर्गों का आरोप है कि आरक्षित वर्गों का निर्धारित कोटा अभी तक खाली पड़ा हुआ है।
  4. राजस्थान सहित अनेक राज्यों के ब्राह्मण और राजपूत आरक्षण प्राप्ति हेतु आन्दोलन चला रहे हैं।
  5. पिछड़े वर्ग के लोग कहते हैं कि मनुवादियों के कारण पिछड़ों का विकास अवरुद्ध हो रहा है!
  6. वहीं पिछड़े वर्गों की कुछ जातियों का आरोप है कि उनको अपना हक नहीं मिल रहा है।
  7. इसी प्रकार से अजा-जजा वर्गों में भी कुछ कमजोर जातियों में असन्तोष देखा जाता रहा है। 
  8. मनुवादी धार्मिक शिक्षाओं के कारण स्त्रियों के साथ जन्म से लैंगिक विभेद जगजाहिर है!
  9. पुरुषवादी सोच की समर्थक मनुवादी विचारधारा को कन्या भ्रूण हत्या की जन्मदात्री बताया जाता है।
  10. वहीं दूसरी ओर मनुवादी 21वीं सदी में भी स्त्रियों को घरों तक सीमित रखना चाहते हैं।
  11. स्त्रियों का कहना है कि उनको विधायिका और नौकरियों में तुरन्त आरक्षण दिया जाये!
  12. जबकि पुरुष राजनेताओं का कहना है कि सबको समानता का अधिकार है-स्त्रियॉं चुनाव जीतकर आयें!
  13. कर्मचारी कहते हैं कि अधिकारी काम कुछ नहीं करते और तानाशाहीपूर्ण व्यवहार करते रहते हैं।
  14. जबकि अफसर कहते हैं कि कर्मचारी काम नहीं करते इस कारण प्रशासन की बदनामी होती है!
  15. जनता का आरोप है कि जनता के नौकरों को तो सारी सुख-सुविधा हैं, जबकि जनता बदहाल-फटेहाल है।
  16. हिन्दुवादी मनुवादी भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करवाने के लिये लगातार पैंतरे चलते रहते हैं!
  17. जबकि धर्मनिरपेक्ष, आदिवासी और अल्पसंख्यक हिन्दू राष्ट्र की मांग का कड़ा विरोध करते रहते हैं!
  18. दलितों का मन्दिरों प्रवेश वर्जित है, फिर भी मनुवादी दलितों को हिन्दुत्व पर गर्व करवाना चाहते हैं!
  19. जबकि करोड़ों दमित एवं शोषित वर्ग के लोग हिन्दू धर्म में जन्म लेने को सबसे बड़ा अभिशाप मानते हैं! 
  20. हिन्दीभाषी कहते हैं कि देश में हिन्दी राष्ट्र भाषा होनी चाहिये। क्योंकि हिन्दी सबसे बड़ी सम्पर्क भाषा है!
  21. जबकि अहिन्दी भाषी दक्षिणी राज्यों के लोग हिन्दी को राष्ट्र भाषा थोपे जाने के सख्त खिलाफ हैं!
  22. काले अंग्रेजों का कहना है कि राजकाज की भाषा केवल अंग्रेजी ही होनी सफल हो सकती है!
  23. बड़ी पार्टियों के राजनेता कहते हैं कि छोटी पार्टियों को जिताने वाले लोगों को लोकतन्त्र की समझ नहीं है!
  24. जबकि जनता का कहना है कि सभी पार्टियों में जनता के सेवक कम और सामन्ती प्रवृत्ति के नेता अधिक हैं।
  25. सत्ताधारी नेता और अफसर निजीकरण को सभी समस्याओं का हल बतलाकर प्रचारित करते रहते हैं!
  26. जबकि निजीकरण में आम जनता का बुरी तरह से शोषण होता है-ये आम लोगों का अनुभव कहता है!
इत्यादि! इत्यादि!!

उपरोक्त सब बातों से ऐसा लगता है कि किसी ना किसी कारण समाज के सभी वर्ग असन्तुष्ट हैं। और देश की बहुत सारी ऊर्जा, आर्थिक संसाधन और प्रशासनिक ताकत इन विरोधाभाषी बातों पर बहस करने और इनको बलपूर्वक नियन्त्रित करने में ही खर्च होती रहती है। इसके उपरान्त भी ये सारी समस्याएँ घटने के बजाय लगातार बढती ही जा रही हैं। फिर भी सरकार इनके समाधान के लिये कतई भी चिन्तित दिखाई नहीं देती।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर सरकारें इनका समाधान क्यों नहीं चाहती? इस सवाल का सच्चा उत्तर ही इन सारी समस्याओं का असली कारण है!
कड़वा सच तो यह है कि मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों के शिकंजे में कैद कोई भी सरकार यह नहीं चाहती कि देश के आम लोग-सुखी, सन्तुष्ट और शान्ति से जीवन यापन करते हुए प्रगति करें। क्योंकि यदि आम लोग सुखी, सन्तुष्ट और शान्त हो गये तो इन बहुसंख्यक लोगों, जो देश की असली लोकतान्त्रिक शक्ति है। अर्थात् 90 फीसदी आम लोगों का ध्यान सरकार द्वारा पैदा की जा रही समस्याओं और शासकों की कमियों की ओर जा सकता है। जो मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रजों के गठजोड़ को उखाड़ फेंक सकते हैं।

इन सबके मूल में सामाजिक न्याय को स्थापित करने की संवैधानिक अवधारणा को ईमानदारी पूर्वक लागू नहीं किया जाना सबसे बड़ा कारण है। अत: मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रजों के गठजोड़ से चलने वाली सभी राज्य और केन्द्र सरकारें उपरोक्त सभी समस्याओं को किसी न किसी रूप में जिन्दा रखना चाहती हैं। यही नहीं बल्कि अतिवादियों द्वारा समर्थित सरकारें तो नये-नये विवाद पैदा करके जनता को उनमें उलझाने के लिये बाकायदा अभियान भी चलावाती रहती हैं। यही इस देश की असली समस्या है। 

देश की इस असली समस्या की वास्तविकता को व्यावहारिक तौर पर समझने के लिये, हमारे देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और संवैधानिक सन्दर्भों को सामने रखकर अनेक बातों का ईमानदारी से निष्पक्ष विश्‍लेषण करके, मनुवादी चश्मे को उतारकर बिना पूर्वाग्रह के समझना होगा। अत: सभी के विचारार्थ निम्न तथ्य प्रस्तुत हैं :-

असली समस्याएँ और उनके असली कारण

1. मनुवादी व्यवस्था ने बहुसंख्यक अनार्यों को अशिक्षित बनाया : आजादी से पूर्व तक भारत में हजारों वर्षों से आर्य-ब्राह्मणों के नेतृत्व में मनुवादी धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था कायम रही। जिसमें आर्यों (ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों) को ही पढने-लिखने का धार्मिक अधिकार था। शूद्रों (दलितों और पिछड़ों) और आदिवासियों को शिक्षा पाने की धार्मिक आजादी नहीं थी। धर्म के नाम पर मनुवादियों द्वारा संचालित इस मनमानी कुव्यवस्था के दुष्परिणाम स्वरूप भारत में हजारों सालों तक :-
  • (1) बहुसंख्यक भारतीय शिक्षा, सुख-सुविधा, स्वास्थ्य, सत्ता, सम्पत्ति तथा व्यापार से वंचित कर दिये गये और सभी अनार्यों को आर्यों (ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों) की बेगार और सेवा करने का बाध्यकारी धर्मादेश था।
  • (2) क्षत्रिय वर्ग शासन संचालन करने और सत्ता तथा एश-ओ-आराम करने में मदमस्त रहा।
  • (3) वैश्य वर्ग भौतिक संसाधनों का भोग करने और व्यापार बढाने में मशगूल रहा।
  • (4) जबकि ब्राह्मणों के पास धर्म ग्रंथ लिखने तथा इन्हीं कथित धर्म ग्रंथों के अनुसार भारतियों से दक्षिणा के नाम पर धार्मिक शुल्क वसूल करके समस्त संस्कार और कर्मकाण्ड पूर्ण करने/कराने का स्वघोषित धार्मिक एकाधिकार था, जो आज तक ज्यों का त्यों कायम है। जिसके चलते बहुसंख्यक अशिक्षित अनार्य समाज में स्वत: ही ब्राह्मणों की धार्मिक सर्वोच्चता कायम हो गयी।
  • (5) धर्मगुरु होने के कारण राजाओं और बादशाहों की सन्तानों के गुरु होने का सम्मान और दरबार में महामंत्री/सलाहकार का सम्मानजनक ओहदा भी ब्राह्मणों को ही मिलता रहा। जिससे परोक्ष रूप से सत्ता पर भी उनका कब्जा बना रहा। 
  • (6) इस प्रकार क्षत्रिय एवं वैश्य वर्गों के सहयोग से ब्राह्मण वर्ग ने हजारों सालों तक भारत की धार्मिक सत्ता और राज सत्ता पर अपना कब्जा रखा। जिसके बलबूते उन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, व्यापारिक एवं सामाजिक व्यवस्था को अपने स्वार्थ-साधन के लिये मनमाने तरीके से इस प्रकार संचालित किया कि बहुसंख्यक भारतीय मानसिक रूप से ब्राह्मणों के गुलाम हो गये। ब्राह्मणों ने धर्म की आड़ में क्षत्रियों और वैश्यों सहित सभी वर्गों के अवचेतन मन पर अनादि काल के लिये अपना धार्मिक कब्जा जमा लिया, जो आज तक कायम है! 
2. गुलाम भारत में आर्य अंग्रेजों के साझीदार : भारत जब अंग्रेजों की गुलामी में जकड़ा हुआ आजाद होने को तड़फड़ा रहा था। उस समय आर्यों के तीनों वर्गों (अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) के बहुसंख्यक लोग अंग्रेजों के साझीदार बन गये, क्योंकि-
  • (1) शिक्षित होने के कारण ब्राह्मणों सहित अधिक पढे-लिखे सभी आर्यों ने अंग्रेज सरकार की गुलामी (नौकरी) मंजूर कर ली और अंग्रेजी कानूनों को थोपने में अंग्रेज-सरकार का साथ दिया। जिन्होंने भारत के आजाद होने तक अंग्रेजी कानून को संचालित किया और आजादी के बाद से आज तक उनके मानसपुत्र अंग्रेजी में कानूनों को थोप रहे हैं।
  • (2) अधिकतर राजाओं और बादशाहों ने अपने मान-सम्मान की परवाह किये बिना और अपनी सुख-सुविधाओं की रक्षार्थ अंग्रेज सरकार से संधियॉं करके अनार्य भारतीयों पर अंग्रेजी सत्ता एवं अंग्रेजी कानूनों को थोपने में अंग्रेज-सरकार का साथ दिया। इसी के चलते आजादी मिलने के बाद और भारत संघ में विलय होने तक राजा-रजवाड़ों और बादशाहों का अस्तित्व कायम रहा।
  • (3) वैश्य वर्ग से अंग्रेजों ने व्यापारिक संधि करके वैश्यों को व्यापार के नाम पर बहुसंख्यक अनार्य भारतीयों का शोषण करने की खुली छूट दे दी। परिणामस्वरूप यह वर्ग आज तक सभी भौतिक सुखों और सम्पन्नता का भोग कर रहा है।
  • (4) जबकि अनार्य शूद्र (दलित एवं पिछड़े) और भारत के मूल निवासी-आदिवासी आजादी के दशकों बाद भी आर्यपुत्रों के शोषण के शिकार हो रहे हैं। जिनको सत्ता और प्रशासन में भागीदारी के नाम पर आरक्षण देकर पंगु बना दिया है। इस आरक्षण को छीनने के लिए भी लगातार षड्यंत्र जारी हैं।  
3. सामाजिक न्याय की स्थापना : संविधान बनाते समय इस बात का ध्यान रखा गया कि हजारों वर्षों से मनुवादी-आर्यों द्वारा वंचित रखे गये और शोषित किये गये बहुसंख्यक लोगों का मजबूत प्रतिनिधित्व प्रदान करना है। अत: उनका प्रतिनिधित्व स्थापित करने और राष्ट्र के सभी आर्थिक संसाधनों में समान भागीदारी प्रदान करने के लिये सामाजिक न्याय की स्थापना करना संवैधानिक लक्ष्य रखा गया। जिसे पूरी तरह से लागू करना तो बहुत दूर लोगों को इसके बारे में जागरूक तक नहीं किया गया। अत: 90 फीसदी आबादी के हित में हर न्यायप्रिय व्यक्ति को निम्न पृष्ठभूमि और तथ्यों को समझना जरूरी है। 
  • (1) आजादी मिलने से पूर्व गोलमेज सम्मेलन के दौरान देश के बहुसंख्यक वंचित और शोषित वर्गों की ओर से संसद में अपने-अपने वर्गों के जनप्रतिनिधि चुनकर भिजवाने के लिये डॉ. अम्बेड़कर द्वारा दोहरे मतदान के अधिकार की मांग की गयी। जिसका मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने खुलकर विरोध किया। लेकिन डॉ. अम्बेड़कर के बौद्धिक प्रयासों और न्यायसंगत तर्कों को सुनने के बाद अंग्रेज प्रधानमंत्री की न्यायिक उदारता और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि मोहम्मद अली जिन्ना के समर्थन से देश के बहुसंख्यक वंचित और शोषित वर्गों को आजादी के बाद दोहरे मतदान के अधिकार को प्रदान करने पर संयुक्त सहमति के हस्ताक्षर हो गये। जिसके लागू होते ही मनुवादी व्यवस्था हमेशा-हमेशा को नेस्तनाबूद हो जाती, लेकिन ऐसा होता इससे पूर्व ही इंग्लैंड से भारत आकर चालाक मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने दोहरे मतदान के अधिकार के विरुद्ध अनशन शुरू कर दिया और तत्कालीन मनुवादी मीडिया तथा मनुवादी राजनेताओं के सहयोग से डॉ. अम्बेड़कर पर इतना भयंकर दबाव बढाया गया, जिससे विवश होकर डॉ. अम्बेड़कर लम्बे संघर्ष के बाद मिले दोहरे मतदान के हक को छोड़ने के लिये गॉंधी के समक्ष मजबूर हो गये।
  • (2) वंचित और शोषित वर्गों को सामाजिक न्याय एवं समान प्रतिनिधित्व प्रदान करने हेतु प्रदान दोहरे दोहरे मतदान के हक को छीनकर इसके बदले में आरक्षण प्रदान करने के लिये एक समझौता किया गया। जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इसी पृष्ठभूमि में आजादी के बाद भारत में ऐसी लोकतान्त्रिक संवैधानिक व्यवस्था को स्थापित करना स्वीकारा गया, जिसमें-देश के सभी वर्गों के बीच समानता और समरसता स्थापित हो सके। जिसकी प्राप्ति के लिये संविधान के पहले पन्ने पर ही सामाजिक न्याय की स्थापना की संवैधानिक वचनबद्धता घोषित की गयी है।
  • (3) सामाजिक न्याय की स्थापना के मकसद के लिये संविधान के अनुच्छेद 14 में मूल अधिकार के रूप में स्पष्ट शब्दों में इस बात की घोषणा की गयी है कि ‘‘देश में सभी लोगों को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा।’’ सुप्रीम कोर्ट द्वारा समानता की अवधारणा की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि समाज की सभी जातियों-वर्गों और धार्मिक समूहों में सामाजिक समानता स्थापित करने हेतु सभी क्षेत्रों में सामाजिक न्याय को स्थापित करना सरकार का अनिवार्य कर्त्तव्य है। सुप्रीम कोर्ट ने अनेक निर्णयों में यह भी स्पष्ट किया है कि समानता का मतलब आंख बन्द करके सभी लोगों को एक डण्डे से हांकना नहीं है, बल्कि समानता का मतलब है-एक जैसी सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोगों के साथ एक जैसा अर्थात् समान व्यवहार करना है, न कि असमान सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोगों के साथ समानता का व्यवहार करना। 
  • (4) समानता स्थापित करने के इसी पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिये संविधान निर्माताओं ने मनुवादी आर्यों द्वारा हजारों वर्षों से शोषित बहुसंख्यक समाज (दलित, आदिवासी एवं पिछडे़ वर्गों) को संविधान में अनूसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और पिछड़े वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया है। जिसका संवैधानिक लक्ष्य-सभी संवैधानिक संस्थानों और प्रशासन में उच्चतम स्तर तक सभी वर्गों का, विशेषकर हजारों वर्षों से वंचित व शोषित दलित, आदिवासी एवं पिछडे़ वर्गों का उनकी जनसंख्या के अनुसार मजबूत प्रतिनिधित्व स्थापित करना है। संवैधानिक संस्थानों और प्रशासन में समान भागीदारी के साथ-साथ देश के सभी प्राकृतिक, भौतिक और आर्थिक संसाधनों का भी समाज के सभी वर्गों में समानता के आधार पर न्यायोचित बंटवारा करना भी सामाजिक न्याय के सिद्धान्त का लक्ष्य रखा गया था।
  • (5) जैसा ऊपर बताया गया है, दोहरे मतदान के स्वीकृत अधिकार को गांधी द्वारा छीनकर बदले में पूना पैक्ट के जरिये सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया। जिसके तहत वंचित और शोषित वर्गों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिये उन्हें शिक्षण संस्थानों, प्रशासन (कार्यपालिका) और विधायिका में भागीदारी प्रदान करने की बात को सिद्धान्तत: स्वीकार किया गया। अत: आजादी के बाद सामाजिक न्याय की स्थापना संविधान का सुस्पष्ट लक्ष्य निर्धारित किया गया। इसके बावजूद और जवाहर लाल नेहरू के खुले समर्थन के उपरान्त भी सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे अनेक मुनवादी दिग्गज राजनेताओं ने इसका कड़ा विरोध किया। जिसके चलते डॉ. अम्बेड़कर वंचित और शोषित-दलित, आदिवासी एवं पिछडे़ वर्गों को शिक्षण संस्थानों और कार्यपालिका (प्रशासनिक नियुक्तियों तथा पदोन्नतियों) में आरक्षण प्रदान करने के सुस्पष्ट और कड़े प्रावधान मूल संविधान में समाहित करवाने में मनुवादियों के सामने असहाय और असफल हो गये।
  • (6) संविधान लागू होने से पहले डॉ. अम्बेड़कर वंचित और शोषित वर्गों को संवैधानिक संरक्षण दिलवाने में मनुवादियों के संख्याबल के सामने दूसरी बार असफल रहे। पहली बार जातिवादी मोहनदास कर्म चंद गांधी के कारण और दूसरी बार सरदार पटेल जैसे मनुवादियों के कारण। इस असफलता के दुष्परिणाम संविधान लागू होते ही सामने आ गये। मनुवादियों ने न्यायपालिका के सहयोग से दलित, आदिवासी एवं पिछडे़ वर्गों को प्रदत्त सामाजिक न्याय के लाभों से वंचित करने के षड़यंत्र रचना शुरू कर दिये। जिससे छुटकारा दिलाने के लिये भारत के प्रथम विधिमंत्री डॉ. अम्बेड़कर को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का खुलकर समर्थन मिला। जिसके जरिये संविधान में प्रथम संशोधन करके वंचित एवं शोषित वर्गों को आरक्षण प्रदान करने के प्रावधानों को मूल अधिकार के रूप में शामिल किया गया। इसके बावजूद भी और भारत की संसद द्वारा बार-बार आरक्षण विरोधी सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को निरस्त किये जाते रहने के उपरान्त भी, न्यायपालिका के सकारात्मक सहयोग से मनुवादियों द्वारा शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के और नौकरियों में प्राप्त आरक्षण व्यवस्था को कमजोर करने के प्रयास लगातार आज तक जारी हैं।
  • (7) प्रथम संविधान संशोधन के जरिये हजारों वर्षों से वंचित और शोषित अनार्यों को सामाजिक न्याय के जरिये भागीदारी प्रदान करने के मकसद से सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय और सभी प्रशासनिक नियुक्तियों/पदों पर वंचित और शोषित वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुरूप आरक्षण प्रदान करने की संवैधानिक व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी। जिसके तहत शुरू में केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों को ही आरक्षण प्रदान किया गया।
  • (8) मगर संविधान में किसी प्रकार की रोक नहीं होने के बावजूद भी अजा एवं अजजा के लोगों को प्रथम श्रेणी से ऊपर के उच्च नीति-नियन्ता प्रशासनिक पदों पर, न्यायपालिका में और सेना में आज तक आरक्षण नहीं दिया गया है। यही नहीं अनेक दलित और आदिवासी समूह आज भी आरक्षित वर्गों की सूचियों में शामिल नहीं किये गये हैं। समान पृष्ठभूमि के आदिवासियों को अलग-अलग राज्यों में मनमाने तरीके से अलग-अलग वर्गों में शामिल करने उनकी ऐतिहासिक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान और एकता को नष्ट करने के षड़यंत्र रचकर उन पर मनुवाद को थोप जा रहा है। जिसके लिये आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा और समाज सेवा के नाम पर प्रमुख कट्टर हिन्दूवादी संगठन मनुवादी जहर की फसल बोते रहे हैं।
  • (9) यद्यपि विधायिका में प्रथम दस वर्षों के लिये अजा एवं अजजा वर्गों के लिये आरक्षण को स्वीकार किया गया। जिसे हर दस वर्ष बाद बढाया जाता रहा है। इसके बावजूद आज तक अजा एवं अजजा वर्गों को विधायिका में मजबूत प्रतिनिधित्व नहीं मिला, क्योंकि आरक्षित क्षेत्रों से निर्वाचित सांसदों और विधायकों को अपने राजनैतिक दल के आदेशों को मानना दलगत नियमों की बाध्यता है। इस प्रकार विधायिका में मिला आरक्षण अपने लक्ष्य को हासिल करने में पूरी तरह से असफल रहा है।
  • (10) पिछड़े वर्ग को तो शुरू में किसी भी प्रकार का आरक्षण नहीं दिया गया। बहुत बाद में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर पिछडे़ वर्ग के लोगों को शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय और प्रशासन में केवल प्रथम नियुक्ति के समय ही आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान किया गया जो एक हाथ से देकर दूसरे हाथ से छीन लेने के समान है। क्योंकि नियुक्ति प्राप्त करते ही पिछड़े वर्ग का व्यक्ति अपने वर्ग से बाहर हो जाता है। उच्चतम प्रशासनिक पदों तक आरक्षित वर्गों को पदोन्नतियों में अवसर प्रदान किये बिना आरक्षण का कोई संवैधानिक औचित्य नहीं है। केवल यही नहीं, पिछड़े वर्ग को विधायिका में आरक्षण नहीं दिया गया। इसके उपरान्त भी भारतीय संवैधानिक, प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था पर काबिज 10 फीसदी मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों के गठजोड़ ने आरक्षण को 50 फीसदी पर रोक दिया। और 50 फीसदी को भी, अभी तक पूर्ण नहीं होने दिया गया है। सच तो ये है कि आर्यों के वंशज आरक्षण को समाप्त करने के लिये लगातार षड़यंत्र रचते रहते हैं। जिसके चलते आज तक संविधान की मंशा के अनुरूप सामाजिक न्याय की स्थापना होना असम्भव होता जा रहा है।
4. धर्मनिरपेक्षता की स्थापना : आजादी मिलने के बाद भारत में ऐसी धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्था को स्वीकार किया गया, जिसमें-सभी लोगों को धर्म, उपासना और अपनी आस्था तथा विश्‍वासों के अनुसार धार्मिक आजादी की गारण्टी दी गयी थी। इसके बावजूद-
  • (1) मनुवादियों द्वारा प्रकृति पूजक और प्रकृति प्रेमी आदिवासियों के प्राकृतिक और परम्परागत विश्‍वासों को नष्ट करने के दुराशय से मनुवादी मानसिक विकारों को थोपने के योजनाबद्ध प्रयास किये जा रहे हैं। आदिवासियों को वनवासी और गिरिवासी कहकर उनकी पहचान नष्ट की जा रही है। जिसके चलते अनेक आदिवासी समूह मजबूरन क्रिश्‍चयन धर्म को ग्रहण कर चुके हैं।
  • (2) मनुवादियों के आतंक ने दलितों को भी इस प्रकार से भयाक्रांत कर रखा है कि वे लगातार बौद्ध धर्म की दीक्षा लेते जा रहे हैं। यही नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण करने के बाद भी मनुवादी आतंकी दलितों को बाध्य करते रहते हैं कि वे मनुवादी धार्मिक आस्थाओं और विश्‍वासों के अनुसार ही जीवन जियें।
  • (3) पिछड़े वर्गों पर भी मनुवादियों ने अपने विचार और धर्मादेश इस प्रकार से थोप रखे हैं कि वे मनुवाद के मानसिक चंगुल में कशमशा रहे हैं, लेकिन चाहकर भी आजाद नहीं हो पा रहे हैं। महापुरुष और भगवान के रूप में पूजित कृष्ण जो अनार्य यादववंशी थे, फिर भी उनको विष्णु अवतार घोषित करके आर्य अपने मार्फत पिछड़ों को मनुवादियों के धार्मिक गुलाम बनाये रखने के नये-नये षड़यंत्र रचते रहते हैं।
  • (4) मनुवादी सुनियोजित षड्यंत्र के तहत, गैर-मनुवादियों सहित सभी अन्य धर्मावलम्बियों को मलेच्छ का दर्जा देते हैं। जिनके प्रति नफरत फैलाकर सम्पूर्ण देशवासियों में उनके प्रति घृणा का ऐसा वातावरण बनाने में मशगूल रहते हैं, जिससे धार्मिक अल्पसंख्यकों को संविधान में विशेष संरक्षण प्राप्त होने के उपरान्त भी वे अपने आप को सर्वाधिक असुरक्षित अनुभव करते हैं। जिससे उनमें असुरक्षा भाव जन्म लेता है, जो आक्रामकाता को जन्म देता है। ऐसे हालातों का अतिवादी लाभ उठाते हैं। जिसके दुष्परिणामस्वरूप समाज में आतंकी और नक्सलवादी पैदा होते हैं।
5. सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह : आजादी मिलने के बाद भारत में ऐसी लोक-कल्याणकारी संवैधानिक व्यवस्था को स्थापित करना स्वीकार किया गया, जिसमें-कार्यपालिका के अधीन कार्यरत सभी अफसरों, कर्मचारियों तथा सभी जनप्रतिनिधियों को लोक सेवक अर्थात् जनता के नौकर का दर्जा दिया गया। जिसके पीछे संविधान निर्माताओं की पवित्र मंशा दी कि सभी लोक सेवक राज्य सत्ता के अधिकार और कर्त्तव्यों का निर्वाह अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वाह के रूप में करें। जिससे देश के प्रत्येक व्यक्ति को न्याय मिलना सुनिश्‍चित हो सके और सच्चे अर्थों में देश में लोक-कल्याणकारी शासन व्यवस्था की स्थापित हो सके। लेकिन प्रशासन पर काबिज मनुवादी काले अंग्रेजों और उनके चंगुल में फंसे जनप्रतिनिधियों ने लोक सेवक के रूप में संविधान सम्मत इस सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी तरह से भुला दिया है। लोक सेवक जो जनता के नौकर के रूप में जनता की सेवा करने के लिये नियुक्त किये जाते हैं, वे जनता के मालिक बन बैठे हैं। जिससे भारतीय लोकतंत्र में लगातार लोक (जनता) कमजोर होता जा रहा है और तंत्र (प्रशासन) मजबूत होता जा रहा है।

6. उपरोक्तानुसार यह स्पष्ट है कि-
  • (1) आजादी मिलते ही सरकार का पहला दायित्व था कि देश के सभी वर्गों के बीच समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना हो। जिसके लिये सभी वर्गों की जनसंख्या की गणना करके जनसंख्या के अनुसार सभी वर्गों को सभी संवैधानिक संस्थानों में, प्रशासन में और सभी प्रकार के आर्थिक संसाधनों में समान भागीदारी प्रदान की जाती।
  • (2) जबकि इसे विपरीत सरकार और प्रशासन ने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी की खुली अनदेखी की। यहॉं तक कि देश की आबादी की जाति, धर्म और वर्गों के अनुसार जनगणना तक नहीं करवायी गयी!
  • (3) आजादी के बाद अंग्रेजों की गुलामी करने वाले आर्यों के तीनों वर्गों के उच्च पदस्थ कुटिल प्रवृत्ति के चालाक और इंसाफ में विश्‍वास नहीं रखने वाले लोग राष्ट्र के सभी संवैधानिक संस्थानोंं, संसाधनों और सुख-सुविधाओं पर कब्जा जमाने के लिये चालबाजियों का सहारा लेते रहते हैं।
7. दस फीसदी लोगों का सम्पूर्ण भारतीय व्यवस्था पर कब्जा : भारत का इतिहास गवाह है कि हजारों सालों से मनुवादियों ने सम्पूर्ण भारतीय व्यवस्था पर अपना कब्जा जमाया हुआ है। आजादी के बाद मनुवादियों ने पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों को भी अपने गिरोह में शामिल कर लिया है। जिसके चलते इन दस फीसदी लोगों के दुराचारी गिरोह ने इस देश की सम्पदा और आर्थिक संसाधनों पर एकाधिकार कर लिया है। जिसके परिणाम स्वरूप-
  • (1) मात्र दो फीसदी लोगों के पास देश की सत्तर फीसदी पूंजी है और आठ फीसदी लोगों का पच्चीस फीसदी संसाधनों पर कब्ज़ा है।
  • (2) इस प्रकार दस फीसदी मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों के गिरोह का देश के पिच्यानवें फीसदी संसाधनों पर कब्ज़ा है। और
  • (3) भारत की नब्बे फीसदी गरीब और मेहनतकश आबादी मात्र पांच फीसदी संसाधनों पर जैसे-तैसे गुजार-बशर करने को मजबूर है।
8. दस फीसदी लोगों का सभी संवैधानिक संस्थानों पर दब्जे के दुष्परिणाम : इससे भी बड़ा आश्‍चर्य तो यह है कि इन दस फीसदी मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों के गिरोह ने इस देश के सभी संवैधानिक संस्थानों पर कब्जा कर रखा है। जिसके परिणाम स्वरूप-
  • (1) कुछ गिनेचुने परिवारों के लोग ही हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज नियुक्त होते रहे हैं।
  • (2) संघ लोक सेवा आयोग पर इनका एकछत्र कब्ज़ा है, जिसके चलते ये किसी भी योग्य प्रत्याशी को अयोग्य घोषित करके अपने चहेतों को काले अंग्रेजों की फौज में शामिल करने को आजाद हैं।
  • (3) विधायिका द्वारा सभी कानून अंग्रेजी में बनाये जाते हैं। पीड़ित पक्षकार को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपनी अर्जी, याचिका, दावा केवल अंग्रेजी में ही पेश करना होता है। कोर्ट के निर्णय भी अंग्रेजी में सुनाये जाते हैं। इस प्रकार न्याय चाहने वाले पक्षकार को अपनी अर्जी पर हस्ताक्षर करने से पूर्व तक और कोर्ट का निर्णय प्राप्त हो जाने तक यह ज्ञात ही नहीं होता है, कि उसकी ओर से अर्जी में क्या लिखा गया और कोर्ट की ओर से पारित निर्णय किन तथ्यों पर आधारित है। जबकि अर्जी पेश करने वाले के अलावा उसके मामले के समस्त तथ्यों को अन्य कोई (वकील) कभी नहीं जान सकता। 
  • (4) नौकरी हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर अंग्रेजी में बनाकर असंवेदनशील लोगों द्वारा भारतीय भाषाओं में शब्दानुवादित किये जाते हैं, लेकिन मान्यता अंग्रेजी भाषा के पेपरों को ही दी जाती है। इस कारण अंग्रेजी भाषा में अदक्ष परिवारों के लोग लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।
9. जिन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया उनका व्यवस्था पर कब्जा : उपरोक्तानुसार विभेदकारी विभाजन के कारण भारत की संवैधानिक सत्ता पर अधिकतर उन्हीं लोगों का कब्जा रहा है, जिन्होंने या जिनके पूर्वजों ने न तो अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में भाग लिया और न हीं जिनको देश की जनता की असल समस्याओं का कोई ज्ञान है। इस कारण देश और समाज आज इन मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों का गुलाम है। अंग्रेजों से तो देश आजाद हो गया, मगर भारतीय अंग्रेजों का आज भी कब्जा कायम है। जिनसे छुटकारा मिलने की कहीं दूर-दूर तक कोई आशा की किरण नजर नहीं आ रही है।

10. ‘‘हक रक्षक दल’’ के सरकार से सीधे सवाल : ‘‘हक रक्षक दल’’ उन नब्बे फीसती मेहनतकश भारतवासियों की सशक्त आवाज है, जो वास्तव में इस देश के सच्चे स्वामी हैं। लेकिन संगठित-एकजुटता तथा जागरूकता के अभाव में मात्र दस फीसदी चालाक-मनुवादियों, पूंजिपतियों तथा काले अंग्रेजों ने उनकोे मानसिक और आर्थिक रूप से गुलाम बना रखा है और देश के सभी संवैधानिक संस्थानों तथा संशाधनों पर बलात् कब्जा कर रखा है! अत: हमारे सरकार से सीधे सवाल हैं कि-

1. सामाजिक न्याय क्यों नहीं? यदि वास्तव में हम सभी भारतवासी आजाद हैं और देश के सभी लोगों को समानता का मूल अधिकार प्राप्त है तो फिर-
  • (1) देश पर केवल दस फीसदी मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों का ही कब्जा क्यों है?
  • (2) देश के संवैधानिक संचालन और देश के सभी संसाधनों में देश के सभी वर्गों का उनकी जनसंख्या के अनुसार समान प्रतिनिधित्व और बराबर की हिस्सेदारी क्यों नहीं है?
  • (3) दस फीसदी शोषक आबादी द्वारा नब्बे फीसदी देशवासियों के हितों की परवाह किये बिना भेदभावपूर्ण निर्णय लेकर मनमाने तरीके से लागू किये जा रहे हैं, जिनके विरुद्ध कानूनी संरक्षण प्रदान करने के लिये अधिकृत न्यायपालिका में भी इन्हीं दस फीसदी लोगों का कब्जा है! क्या इसी को सामाजिक न्याय और देश में कानून का शासन कहते हैं?
2. कैसी धर्मनिरपेक्षता? यदि वास्तव में हमारा देश धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है तो फिर-
  • (1) देशवासियों को अपनी आस्थाओं और विश्‍वासों के अनुसार धार्मिक आजादी क्यों नहीं?
  • (2) प्रकृति पूजक आदिवासियों और मूल निवासियों तथा अन्य धर्मावलम्बियों पर मनुवादी धार्मिक आतंक क्यों? 
3. अंग्रेजी की गुलामी क्यों? यदि देश की लोकतान्त्रिक तरीके से निर्वाचित सरकार हकीकत में अपने देश के लोगों को न्याय प्रदान करने और विशेषकर नब्बे फीसदी शोषित लोगों को अन्याय एवं भेदभाव से संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने को प्रतिबद्ध हैं तो फिर-
  • (1) देश के सभी कानूनों का निर्माण और अदालतों की न्यायिक कार्यवाही विदेशी अंग्रेजी भाषा में क्यों?
  • (2) समस्त हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट यदि हकीकत में नागरिक मूल अधिकारों के संवैधानिक गारण्टर एवं संरक्षक हैं, तो फिर देश के नागरिकोंं को उनकी पीड़ा केवल विदेशी अंग्रेजी भाषा में लिखकर देने की बाध्यता क्यों है?
  • (3) यदि न्यायालयों का मूल मकसद देश के लोगों को न्याय प्रदान करना ही है तो फिर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अपने निर्णय देश के लोगों की भाषाओं में सुनाने के बजाय विदेशी अंग्रेजी भाषा में क्यों सुनाते हैं?
  • (4) यदि लोक सेवकों (सरकारी अफसरों व कर्मचारियों) को देश के लोगों की सेवा करने के लिये ही भर्ती किया जाता है तो लोक सेवकों की भर्ती परीक्षाओं में विदेशी अंग्रेजी भाषा को उत्तीर्ण करने की अनिवार्यता क्यों है?
4. संवैधानिक जिम्मेदारी?

क-हमारे लोक सेवक, हकीकत में ही देश की जनता के नौकर (Public Servant) हैं और उनको जनता की सेवा करने के लिये सुविधाओं के साथ वेतन मिलता हैे, फिर भी-
  • (1) उनमें जनता की सेवा करने की संवैधानिक जिम्मेदारी को निर्वाह करने का अहसास क्यों नहीं?
  • (2) जो जनता की सेवा नहीं करते, उनको भारतीय दण्ड संहिता के तहत सजा देने का कानूनी प्रावधान क्यों नहीं?
ख-जनप्रतिनिधियों को विधायिका में जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिये चुना जाता है, जिसके लिये उनको सुविधाओं के साथ वेतन भी मिलता है, फिर भी-
  • (1) जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को निर्वाह करने का अहसास क्यों नहीं?
  • (2) जो जनप्रतिनिधि वायदों व दायित्वों पर खरे नहीं उतरते, उन्हें वापस बुलाने का संवैधानिक प्रावधान क्यों नहीं?
5. सामाजिक जिम्मेदारी? यदि हमारा मकसद देशभक्त और श्रृेष्ट नागरिकों का निर्माण करना है तो उच्च पदों पर पदासीन जनप्रतिनिधियों और लोक सेवकों के दिलों में अपनी संविधान सम्मत सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने की नैतिक जिम्मेदारी का अहसास क्यों नहीं? और जो अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करते उनका सामाजिक बहिष्कार करने का हम देश के बहुसंख्यक लोगों में साहस क्यों नहीं?

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
-प्रमुख : हक रक्षक दल

अंतिम किन्तु महत्वपूर्ण बात-खलनायकों का सम्मान क्यों? धार्मिक आतंकवाद के जनक मनु, संसार के सबसे बड़े कातिल एवं क्षत्रियों के हत्यारे परशुराम और सर्वश्रेृष्ठ धनुर्धर आदिवासी यौद्धा एकलव्य के साथ छल करने वाले द्रोणाचार्य जैसों को महिमा-मण्डित करके सरकार किस प्रकार के समाज का निर्माण करना चाहती है?

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